ब्लौग सेतु....

22 जुलाई 2017

ख्वाहिशों का पंछी

बरसों से निर्विकार,
निर्निमेष,मौन अपने
पिंजरे की चारदीवारियों
में कैद, बेखबर रहा,
वो परिंदा अपने नीड़
में मशगूल भूल चुका था
उसके पास उड़ने को
सुंदर पंख भी है
खुले आसमां में टहलते
रुई से बादल को देख
शक्तिहीन परों को
पसारने का मन हो आया
मरी हुई नन्ही ख्वाहिशे
बुलाने लगी है पास
अनंत आसमां की गोद,
में भूलकर, काटकर
जाल बंधनों का ,उन्मुक्त
स्वछंद फिरने की चाहत
हो आयी है।
वो बैठकर बादलों की
शाखों पर तोड़ना
चाहता है सूरज की लाल
गुलाबी किरणें,देखना
चाहता है इंद्रधनुष के
रंगों को ,समेटना
चाहता है सितारों को,
अपने पलकों में
समाना चाहता है
चाँद के सपनीले ख्वाब
भरना चाहता है,
उदास रंगहीन मन में
हरे हरे विशाल वृक्षो़ के
चमकीले रंग,
पीना है क्षितिज से
मिलती नदी के निर्मल जल को
चूमना है गर्व से दिपदिपाते
पर्वतशिख को,
आकाश के आँगन में
अपने को पसारे
उड़ान चाहता है अपने मन
के सुख का,
नादां मन का मासूम पंछी
भला कभी तोड़ भी पायेगा
अपने नीड़ के रेशमी धागों का
सुंदर पिंजरा,
अशक्त पर, सिर्फ मन की उडान
ही भर सकते है,
बेजान परों में ताकत बची ही नहीं
वर्जनाओं को तोड़कर
अपना आसमां पाने की।

     #श्वेता🍁

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-07-2017) को "शंखनाद करो कृष्ण" (चर्चा अंक 2675) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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