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4 जुलाई 2017

बेबस आवाज

बेबस आवाज

बेबस है एक आवाज 
लोगो के जर्जर तहखाने मे
व्याकुल हो उठती है
जब कभी कोई 
शोर सुनाई देता है
डरी हुई थोड़ी सहमी सी 
इन महानगरों के 
दोहरे आचरण से
जहाँ असत्य का आधिक्य है
जहाँ सत्य का मुद्रा से विनिमय
उसकी आँखों के सामने होता है
जहाँ हर रोज कोई हिंसा किसी
नवजात रूपी अवधारणा 
का हरण कर लेती है
विलुप्ति की कगार पर 
खड़ी होकर 
हर क्षण खोजती है
कुछ दर्रो को 
जहाँ से वो स्वतंत्र होकर
सूर्य की किरणों का 
अवलोकन कर पाए
संचारित हो सके उनमे
प्राणदायक आशाए
पनपती है इसलिये
निरन्तर कि कोई धारणा 
अपवाद न बन जाये
अक्सर उलझ जाती है
परंपरावादी समाज मे
नही सुलझा पाती है खुद को 
धीरे धीरे ह्रसित होकर
स्वयं अपना ही अस्तित्व 
समाप्त कर लेती है


----- हिमांशु मित्रा 'रवि'

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर.. सवागत व अभिनंदन आप का....

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    1. ह्रदयतल से धन्यवाद आदरणीय
      आपने मुझे अपने ब्लॉग का सदस्य बनाया इसके लिए सदा आपका आभारी रहुगा

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  2. वेलकम हिमांशु भाई
    आपका स्वागत है कविता मंच में
    सुन्दर कविता के साथ प्रवेश
    सादर

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. वाह ! ऐसी रचना पढ़े बहुत दिन हो गए। सुन्दर !रचना ,आभार। 'एकलव्य'

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