ब्लौग सेतु....

16 अप्रैल 2015

कविता/ मरा हुआ आदमी-Brijesh Neeraj




इस तंत्र की सारी मक्कारियाँ
समझता है आदमी
आदमी देख और समझ रहा है
जिस तरह होती है सौदेबाज़ी
भूख और रोटी की
जैसे रचे जाते हैं
धर्म और जाति के प्रपंच
गढ़े जाते हैं
शब्दों के फरेब

लेकिन व्यवस्था के सारे छल-प्रपंचों के बीच
रोटी की जद्दोजहद में
आदमी को मौका ही नहीं मिलता
कुछ सोचने और बोलने का
और इसी रस्साकसी में
एक दिन मर जाता है आदमी

साहेब!
असल में आदमी मरता नहीं है
मार दिया जाता है
वादों और नारों के बोझ तले

लोकतांत्रिक शांतिकाल में
यह एक साजिश है
तंत्र की अपने लोक के खिलाफ
उसे खामोश रखने के लिए

कब कौन आदमी जिन्दा रह पाया है
किसी युद्धग्रस्त शांत देश में
जहाँ रोज गढ़े जाते हैं
हथियारों की तरह नारे
आदमी के लिए
आदमी के विरुद्ध
लेकिन हर मरे हुए आदमी के भीतर
सुलग रही है एक चिता
जो धीरे-धीरे आँच पकड़ेगी

हवा धीरे-धीरे तेज़ हो रही है
बृजेश नीरज

13 अप्रैल 2015

एक कविता- मां

मां

-राजेश त्रिपाठी


ममता की छांव सी
बेघर के ठांव सी
जाड़े में धूप सी
यानी अनूप सी
मां
गंगा की धार सी
बाढ़ में कगार सी
ठंड़ी बयार सी
नफरत में प्यार सी
मां
धूप में साया सी
मोहमयी माया सी
गहराई में सागर सी
प्यार भरी गागर सी
मां
दुर्दिन अपार में
निर्दयी संसार में
कष्टों की मार में
दया और दुलार सी
मां
बच्चों की जान सी
दीन और ईमान सी
घर के कल्याण सी
धरती में भगवान सी
मां



9 अप्रैल 2015

गजल-आदमी

आदमी!
क्या था क्या हो गया कहिए भला ये आदमी।
सीधा-सादा था, बन गया क्यों बला आदमी।।
अब भला खुलूस है कहां, जहरभरा है आदमी।
आदमी के काम आता , है कहां वो आदमी।।
था देवता-सा, है अब हैवान-सा क्यों आदमी।
बनते-बनते क्या बना,इतना बिगड़ा आदमी।।
मोहब्बत,  वो दया, कहां भूल गया आदमी।
नेक बंदा था, स्वार्थ में फूल गया आदमी।।
प्रेम क्या है, हया क्या, भूल गया  आदमी।
था कभी फूलों के जैसा, शूल हुआ आदमी।।
प्यास ना बुझा सके, वो  कूल हुआ आदमी।
सुधारी ना जा सके, वो भूल हुआ आदमी।।
इनकी करतूतें देख के, हलकान हुआ आदमी।
गुरूर में ऐंठा, धरती का भगवान हुआ आदमी।।
बुराइयों का पुतला बना, गिर गया है आदमी।
सच कहें बिन मौत ही, मर गया है आदमी।।
है वक्त अभी खुद को जरा, संभाल ले आदमी।
वरना नहीं मिलेगा,दुनिया में सच्चा आदमी।।
राजेश त्रिपाठी




7 अप्रैल 2015

गर आप फ रमाइश करें -राजेश त्रिपाठी



गर आप फरमाइश करें

  राजेश त्रिपाठी

हमने आज जलाये हैं , हौसलों के चिराग।
हवाओं से कहो, वे जोर आजमाइश करें।।

हम तो रियाया हैं, हमारी क्या बसर।
आप आका हैं, जो सात को सत्ताइश करें।।

झुनझुने की तरह , हम आगे-पीछे बजते रहे।
सजदे में झुक जायेंगे, गर आप फरमाइश करें।।

मुसलसल आपकी जफाओं ने, मारा है हमें।
कितने आंसू अब तक बहे, आप पैमाइश करें।।

हाथों को काम मुंह को निवाला मिलता रहे।
खुदारा आप बस इतनी तो गुंजाइश  करें।।

भूखे पेट जी रही है, देश की आधी अवाम।
और आप हैं कि शानो शौकत की नुमाइश करें।।

देश का अमनो अमान हो गया है काफूर।
आग है लगी हुई, आप वो करें जो तमाशाई करें।।

» कोई तो आकर दीप जलाए [गीत] - देवी नागरानी

दिल में छुपे है घोर अंधेरे
कोई तो आकर दीप जलाए.
यादों के साए मीत है मेरे
कोई उन्हें आकर सहलाए.
टकराकर दिल यूँ है बिखरा
बनके तिनका तिनका उजडा
चूर हुआ है ऐसे जैसे
शीशे से शीशा टकराए.
चोटें खाकर चूर हुआ वो
जीने पर मजबूर हुआ वो
जीना मरना बेमतलब का
क्या जीना जब दिल मर जाए.
चाह में तेरी खोई हूँ मै
जागी हूँ ना सोई हूँ मैं
सपनों में आकर वो ऐसे
आँख मिचौली खेल रचाए.
तेरे मिलन को देवी तरसे
तू जो मिले तो नैना बरसे
कोई तो मन की प्यास बुझाए
काली घटा तो आए जाए.

http://www.sahityashilpi.com/2015/03/deep-jalaye-geet-devi-nagrani.html

4 अप्रैल 2015

सबसे ख़तरनाक / पाश



मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।

3 अप्रैल 2015

वो औरत जब निकलती है घर से -- रीना मौर्या


वो औरत जब निकलती है घर से
दर्जनभर सुहाग की निशानिया पहनकर
सिंदूरी आभा बिखेरती उसकी माँग
गले में लटकाये तोलाभर मंगलसूत्र
हाथों में पिया नाम की मेहंदी
और दर्जन - दो- दर्जनभर चूड़ियाँ
पैरों की उंगलियो में हीरे जड़ित चाँदी के बिछुए
गहरे गुलाबी रंग के आलते से रंगे उसके पांव
खुद को पल्लू में छुपाती,मुस्काती
बड़ी ही खुशमिजाज लग रही थी
पर कोई न देख पाया उसकी
एक और सुहाग निशानी
जिसे उसने छुपा रखा है
इनसभी सुहाग निशानियों के बीच
कजरारी अँखियों में छुपी रोती हुयी आँखे
वो घाव जो उसकी चूड़ियों के बीच से कराह रहे थे
वो घाव जो उसके सुहाग की बर्बरता को
चीख -चीख कर सुनाने की भरसक कोशिश कर रहे थे...
पर इन सुहाग निशानियों को छिपा दिया है
उसने अपनी चमचमाती सुहाग निशानियों के बीच....
वो औरत ....
उस औरत ने....!!

लेखक परिचय - रीना मौर्या