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9 अक्तूबर 2013

सागर लम्बी सांसें भरता है















प्रस्तुत है तार सप्तक के प्रमुख कवियों में से एक - रामविलास शर्मा की यह कविता, जो मुझे बहुत प्रिय है ........

सागर लम्बी सांसें भरता है
सिर धुनती है लहर – लहर

बूँदी बादर में एक वही स्वर
गूँज रहा है हहर - हहर

सागर की छाती से उठकर
यह टकराती है कहाँ लहर ?

जिस ठौर हृदय में जलती है
वह याद तुम्हारी आठ प्रहर

बस एक नखत ही चमक रहा है
अब भी काली लहरों पर

जिसको न अभी तक ढँक पाए हैं
 सावन के बूँदी - बादर

यह जीवन यदि अपना होता
यदि वश होता अपने ऊपर

यह दुखी हृदय भी भर आता
भूले दुख से जैसे सागर

वह डूब गया चंचल तारा
जो चमक रहा था लहरों पर

सावन के बूँदी - बादर में
अब एक वही स्वर हहर हहर

सागर की छाती से उठकर
यह टकराती है कहाँ लहर ?

जिस ठौर नखत वह बुझ कर भी
जलता रहता है आठ पहर

सागर लम्बी सांसें भरता है
सिर धुनती है लहर - लहर

पर आगे बढ़ता है मानव
अपनेपन से ऊपर उठकर

आगे सागर का जल अथाह
ऊपर हैं नीर भरे बादर

बढ़ता है फिर भी जनसमूह
जल की इस जड़ता के ऊपर

बैठा है कौन किनारे पर
यह गरज रहा है जन - सागर?

पीछे हटकर सर धुनकर भी
आगे बढती है लहर - लहर

दुःख के इस हहर - हहर में भी
ऊँचा उठता है जय का स्वर

सीमा के बंधन तोड़ रही है
सागर की प्रत्येक लहर 

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