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10 अगस्त 2013

वक्त का मरहम... रचनाकार आनंदकृष्ण, भोपाल



वो ख़यालों में अगर यूं मुब्तला रह जाएगा ।
कारवां लूट जाएगा औ' काफिला रह जाएगा । 
इस हक़ीक़त से कभी भी हम नहीं अंजान थे-
मुफ़लिसी में सबसे रस्मी सिलसिला रह जाएगा ।
तुम चमन से खार को बाहर निकालोगे; मगर-
ये कहो- क्या खार के बिन गुल खिला रह पाएगा-? (उन सबको जो मुझे या किसी भी सदस्य को समूह से निकालने की सिफ़ारिश कर रहे थे ....)
गर हमारे बीच यूं ही दूरियाँ बढ़ती रहीं-
रास्ते गुम जाएँगे और फासला रह जाएगा । (वैचारिक मतभेदों को व्यक्तिगत स्तर तक उतारने वालों को एक सलाह..............)
वक़्त का मरहम हमारे जख्म तो भर जाएगा,
"कृष्ण" को पर याद तेरा 'वो' सिला रह जाएगा ।  (एक "भूतपूर्व" मित्र को मकते का ये शेर खास तौर पर नज़र है)
सादर-


आनंदकृष्ण, भोपाल 

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